IS Russian sleep experiment is real. What was the aim of the Russian sleep experiment? Is Russian sleep experiment get succeed. Russian sleep experiment
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जरा सोचिये क्या होगा अगर आपको 30 दिनों तक न सोने दिया जाये. जी हां आपने बिल्कुल सही पढ़ा है. इस सवाल को सुनकर ही शायद आप घबरा जाएं. लेकिन, लेकिन कुछ कैदियों के साथ ऐसा ही हुआ था. सन 1940 में विश्व युद्ध के दौरान एक ऐसा ही प्रयोग सोवियत यूनियन ने बंदी बनाए हुए पांच कैदियों पर किया था.हालांकि, 30 दिन पूरे होने से पहले ही उन्हें सभी कैदियों को जान से मारना पड़ा था. इन कैदियों पर एक प्रयोग किया गया था, जिसे "द रशियन स्लीप एक्सपेरिमेंट" का नाम दिया गया था. आखिर ऐसा क्या हुआ था कि इस एक्सपेरिमेंट के पूरा होने से पहले ही कैदियों को मौत के हवाले कर दिया गया!
इस एक्सपेरिमेंट का खुलासा साल 2009 में क्रीपीपास्ता विकि नाम के एक वेबसाइट ने किया इस प्रयोग का खुलासा करते हुए उस ऑर्टिकल में ये भी लिखा गया था कि इस प्रयोग को जानबूझकर पूरी दुनिया से छिपाया गया है. . ऐसा चौंकाने वाला खुलासा किया जिसने सभी को हिलाकर रख दिया था. इस वेबसाइट पर छपे एक आर्टिकल में सोवियत यूनियन द्वारा अपने कैदियों पर किए गए एक बेहद खतरनाक एक्सपेरिमेंट के बारे में बताया गया था जिसने सभी को हिलाकर रख दिया था. इस एक्सपेरिमेंट का नाम था- 'रशियन स्लीप एक्सपेरिमेंट'. इस एक्सपेरिमेंट का मकसद एक ऐसी दवा का इजात करना था कि जिससे बिना सोए और आराम किये ही इंसान अपनी थकान मिटा सके. हालांकि, पुख्ता सबूत ना होने की वजह से इस आर्टिकल की सत्यता पर अभी भी संदेह बना हुआ है.1940 में सोवियत यूनियन ने इस स्लीपिंग एक्सपेरिमेंट के लिए बंदी बनाए हुए दुश्मन सेना के पांच कैदियों को चुना था. इस एक्सपेरिमेंट के दौरान इन कैदियों को 30 दिनों तक एक कमरे में बंद रखा जाना था. और शर्त रखी गई कि अगर ये सभी कैदी बिना सोए इस एक्सपेरिमेंट को 30 दिनों तक सफलतापूर्वक पूरा कर लेते हैं तो उन्हें आज़ाद कर दिया जाएगा.
साथ ही, सोवियत यूनियन ने जिस कमरे में उन कैदियों को रखा गया था, वहां उन्हें खाने, पीने, पढ़ने और हर तरीके की सुविधाएं दी गईं थी.लेकिन उनके सोने या बैठने की कोई व्यवस्था नहीं की गई. इसके अलावा उनपर नज़र रखने के लिए उस कमरे में वन-वे मिरर भी लगाए गए थे. कैदियों को नींद ना आए इस वजह से उस बंद कमरे में एक एक्सपेरिमेंटल गैस उचित मात्रा में ऑक्सीजन के साथ मिलाकर धीरे-धीरे छोड़ी जाती थी. ये गैस एक केमिकल स्टीयूमलेंट थी, जो उन्हें जगाए रख सके.
जिससे वैज्ञानिकों को लगा की शायद वो सफलता प्राप्त कर सकते है. पहले चार दिनों तक कैदियों के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया वो आराम से रह रहे थे और आपस में बात चीत कर रहे थे लेकिन पांचवे दिन से उनकी बेचैनी अचानक बढ़ गई. नौवें दिन उनमें से एक कैदी मानसिक संतुलन खोने की वजह से घंटो चिल्लाता रहा, जिस वजह से उसके गले के वोकल कॉर्ड फट गएं. धीरे-धीरे उन सभी कैदियों की हालत एक जैसी हो गई. जो गैस उनके कमरे में छोड़ा जा रहा था उसका असर सारे कैदियों पर दिखने लग गया था और वह सभी अपना मानसिक संतुलन खोने लगे.धीरे-धीरे रिसर्चर उनके कमरे में उस गैस की मात्रा बढ़ाने लगे. कुछ दिनों तक उस कमरे से अजीब तरीके से बड़बड़ाने और चिल्लाने की आवाज़ें आती रहीं जो बाद में जाकर बिलकुल भी बंद हो गईं. लेकिन कुछ दिनों तक जब कोई भी आवाज़ उस कमरे से आनी बंद हो गई तो उन्होंने अदंर जाने का फैसला किया. लेकिन जैसे ही उन्होंने कैदियों को बताया कि वह सभी अंदर आ रहे हैं तो बेहद खौफनाक आवाज़ में एक कैदी ने उन्हें अंदर आने से मना किया और साथ ही कहा कि वो आज़ाद नहीं होना चाहते.
इन सभी बातों को सुनकर घबराए हुए रिसर्चर जब उस कमरे में दाखिल हुएं तो नज़ारा बिलकुल रौंगटे खड़े करने वाला था. चारो तरफ फर्श पर खून पसरा हुआ था और कैदियों के कटे हुए अंग पड़े हुए थे, जिसे वो बाद में खा सके. कुछ कैदी फर्श पर पड़े हुए मांस के टुकड़े को खा रहे थे. और जो खाना कैदियों को दिया जा रहा था उन्होंने उसे छुआ भी नहीं था
ये दिल दहलाने वाला नज़ारा देखकर रिसर्चर के होश उड़ गएं. रिसर्चरों ने फैसला किया कि इनका इलाज करवाया जाये और अगर ये ठीक हुए तो फिर से एक्सपेरिमेंट जारी रखा जायेगा. इसके बाद उन कैदियों को इलाज के लिए उस कमरे से बाहर निकाला गया, जिसके वजह से वो छटपटाने और चिल्लाने लगे. ऑपरेशन के लिए कैदियों को मॉर्फिन के 8 इंजेक्शन लगाए गए लेकिन उनपर इसका भी कोई असर नहीं हुआ. तो डॉक्टरों को उन्हें बिना बेहोश किये ही उनका ऑपरेशन किया गया हालांकि, इस ऑपरेशन के दौरान 3 कैदियों की जान चली गई और बाकी दो कैदियों को वापस उसी कमरे में बंद कर दिया गया.
कैदियों की हालात को देखते हुए रिसर्चर बेहद डर गए थे और इस एक्सपेरिमेंट को रोकना चाहते थे लेकिन चीफ कमांडर के आदेश की वजह से वह ऐसा कर ना सकें. इस बार उन कैदियों को मॉनिटर करने के लिए तीन रिसर्चर को भी उनके साथ रखा गया. लेकिन, उन कैदियों के हरकत की वजह से एक रिसर्चर इतना डर गया कि उसने बाकी बचे दोनों कैदियों को गोली मार दी. इस घटना के बाद इस एक्सपेरिमेंट को यहीं रोक दिया गया.
हालांकि, जब इस प्रयोग के बारे में रूस से पूछा गया तो उसने ऐसे किसे प्रयोग किए जाने की बात से साफ इंकार कर दिया. जिसके बाद इस प्रयोग और वेबसाइट पर छपे आर्टिकल की सत्यता पर सवाल खड़े हो गएं.
इसके अलावा भी कई कारण हैं, जिस वजह से इस प्रयोग की सत्यता पर सवाल खड़े किए जाते हैं. जैसे:
इस आर्टिकल में इस बात का जिक्र किया जाना कि ऑपरेशन के वक्त बचे हुए दो कैदियों के दिल में हवा चली गई थी लेकिन उसके बावजूद वह दोनों जिंदा रहे. ऐसा होना नामुमकिन है. क्योंकि, किसी भी व्यक्ति के दिल में हवा का प्रवेश जानलेवा होता है. दिल में हवा का प्रवेश होते ही व्यक्ति हॉर्ट अटैक से मर सकता है.
दूसरा, दुनिया में अभी तक ऐसा कोई स्टीयूमिलेंट ड्रग नहीं बना जो किसी भी व्यक्ति के व्यवहार को इस कदर प्रभावित करे या व्यक्तित्व को इस कदर बदल दे.
कई सालों बाद तक जब इस एक्सपेरिमेंट को लेकर कोई पुख्ता सबूत नहीं मिला तो इसे किसी लेखक की कल्पना मान कर भूला दिया गया. लेकिन, आज भी यह सवाल बरकरार है कि क्या ये खौफनाक एक्सपेरिमेंंट सचमुच किसी लेखक की कल्पना थी या इंसानियत को हिलाने वाला एक कड़वा सच!
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इस एक्सपेरिमेंट का खुलासा साल 2009 में क्रीपीपास्ता विकि नाम के एक वेबसाइट ने किया इस प्रयोग का खुलासा करते हुए उस ऑर्टिकल में ये भी लिखा गया था कि इस प्रयोग को जानबूझकर पूरी दुनिया से छिपाया गया है. . ऐसा चौंकाने वाला खुलासा किया जिसने सभी को हिलाकर रख दिया था. इस वेबसाइट पर छपे एक आर्टिकल में सोवियत यूनियन द्वारा अपने कैदियों पर किए गए एक बेहद खतरनाक एक्सपेरिमेंट के बारे में बताया गया था जिसने सभी को हिलाकर रख दिया था. इस एक्सपेरिमेंट का नाम था- 'रशियन स्लीप एक्सपेरिमेंट'. इस एक्सपेरिमेंट का मकसद एक ऐसी दवा का इजात करना था कि जिससे बिना सोए और आराम किये ही इंसान अपनी थकान मिटा सके. हालांकि, पुख्ता सबूत ना होने की वजह से इस आर्टिकल की सत्यता पर अभी भी संदेह बना हुआ है.1940 में सोवियत यूनियन ने इस स्लीपिंग एक्सपेरिमेंट के लिए बंदी बनाए हुए दुश्मन सेना के पांच कैदियों को चुना था. इस एक्सपेरिमेंट के दौरान इन कैदियों को 30 दिनों तक एक कमरे में बंद रखा जाना था. और शर्त रखी गई कि अगर ये सभी कैदी बिना सोए इस एक्सपेरिमेंट को 30 दिनों तक सफलतापूर्वक पूरा कर लेते हैं तो उन्हें आज़ाद कर दिया जाएगा.
साथ ही, सोवियत यूनियन ने जिस कमरे में उन कैदियों को रखा गया था, वहां उन्हें खाने, पीने, पढ़ने और हर तरीके की सुविधाएं दी गईं थी.लेकिन उनके सोने या बैठने की कोई व्यवस्था नहीं की गई. इसके अलावा उनपर नज़र रखने के लिए उस कमरे में वन-वे मिरर भी लगाए गए थे. कैदियों को नींद ना आए इस वजह से उस बंद कमरे में एक एक्सपेरिमेंटल गैस उचित मात्रा में ऑक्सीजन के साथ मिलाकर धीरे-धीरे छोड़ी जाती थी. ये गैस एक केमिकल स्टीयूमलेंट थी, जो उन्हें जगाए रख सके.
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कैदियों की हालात को देखते हुए रिसर्चर बेहद डर गए थे और इस एक्सपेरिमेंट को रोकना चाहते थे लेकिन चीफ कमांडर के आदेश की वजह से वह ऐसा कर ना सकें. इस बार उन कैदियों को मॉनिटर करने के लिए तीन रिसर्चर को भी उनके साथ रखा गया. लेकिन, उन कैदियों के हरकत की वजह से एक रिसर्चर इतना डर गया कि उसने बाकी बचे दोनों कैदियों को गोली मार दी. इस घटना के बाद इस एक्सपेरिमेंट को यहीं रोक दिया गया.
हालांकि, जब इस प्रयोग के बारे में रूस से पूछा गया तो उसने ऐसे किसे प्रयोग किए जाने की बात से साफ इंकार कर दिया. जिसके बाद इस प्रयोग और वेबसाइट पर छपे आर्टिकल की सत्यता पर सवाल खड़े हो गएं.
इसके अलावा भी कई कारण हैं, जिस वजह से इस प्रयोग की सत्यता पर सवाल खड़े किए जाते हैं. जैसे:
इस आर्टिकल में इस बात का जिक्र किया जाना कि ऑपरेशन के वक्त बचे हुए दो कैदियों के दिल में हवा चली गई थी लेकिन उसके बावजूद वह दोनों जिंदा रहे. ऐसा होना नामुमकिन है. क्योंकि, किसी भी व्यक्ति के दिल में हवा का प्रवेश जानलेवा होता है. दिल में हवा का प्रवेश होते ही व्यक्ति हॉर्ट अटैक से मर सकता है.
दूसरा, दुनिया में अभी तक ऐसा कोई स्टीयूमिलेंट ड्रग नहीं बना जो किसी भी व्यक्ति के व्यवहार को इस कदर प्रभावित करे या व्यक्तित्व को इस कदर बदल दे.
कई सालों बाद तक जब इस एक्सपेरिमेंट को लेकर कोई पुख्ता सबूत नहीं मिला तो इसे किसी लेखक की कल्पना मान कर भूला दिया गया. लेकिन, आज भी यह सवाल बरकरार है कि क्या ये खौफनाक एक्सपेरिमेंंट सचमुच किसी लेखक की कल्पना थी या इंसानियत को हिलाने वाला एक कड़वा सच!
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